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गीता प्रेस, गोरखपुर >> भगवान कैसे मिलें

भगवान कैसे मिलें

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :126
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1061
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है भक्त को भगवान कैसे मिलें....

प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है

साधुके संगसे किसी प्रकारकी हानि नहीं है, चाहे जिस तरह भेंट हो जाय। ईश्वर और महात्माओंके द्वारा जो चीज देखी जाती है, उनके परमाणु उन जड़ पदार्थोंमें भी प्रविष्ट हो जाते हैं।

ईश्वरने हमें स्मरण कर लिया तो हम तो निहाल हो गये। ऐसे ही किसी महात्मा पुरुषने हमें याद कर लिया तो हमारे लिये बहुत लाभ है। ईश्वरके जितना तो नहीं है, पर लाभ है। ईश्वर जितना क्यों नहीं है? क्योंकि उनका मन, बुद्धि, शरीर ईश्वरकी तरह दिव्य नहीं है। ईश्वरका शरीर निरामय है, महात्माका शरीर निरामय नहीं है। महात्मा पुरुषोंके क्रियमाण तथा संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं, किन्तु प्रारब्ध तो भोगनेसे ही नष्ट होता है। जिस प्रकार यह व्यक्ति है इसने जितने पाप किये हैं, वे भजनसे नष्ट हो सकते हैं, किन्तु प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होगा। जैसे किसीने यहाँ से बाण से चलाया, वह कहाँ जाकर गिरेगा उसपर आपका कोई जोर नहीं है। जो बाण तरकसमें है, उसपर आपका अधिकार है। चाहे चलाओ चाहे मत चलाओ, इसी प्रकार यह शरीर छूटे हुए बाणकी तरह है, उसमें हाथकी बात नहीं है। बहुतसे पाप पड़े हैं, उनका विनाश हो सकता है। तरकसमें बहुत से बाण पड़े हुए हैं, उनका उपाय है, उन्हें निकालकर फेंका जा सकता है।

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    अनुक्रम

  1. भजन-ध्यान ही सार है
  2. श्रद्धाका महत्त्व
  3. भगवत्प्रेम की विशेषता
  4. अन्तकालकी स्मृति तथा भगवत्प्रेमका महत्त्व
  5. भगवान् शीघ्रातिशीघ्र कैसे मिलें?
  6. अनन्यभक्ति
  7. मेरा सिद्धान्त तथा व्यवहार
  8. निष्कामप्रेमसे भगवान् शीघ्र मिलते हैं
  9. भक्तिकी आवश्यकता
  10. हर समय आनन्द में मुग्ध रहें
  11. महात्माकी पहचान
  12. भगवान्की भक्ति करें
  13. भगवान् कैसे पकड़े जायँ?
  14. केवल भगवान्की आज्ञाका पालन या स्मरणसे कल्याण
  15. सर्वत्र आनन्दका अनुभव करें
  16. भगवान् वशमें कैसे हों?
  17. दयाका रहस्य समझने मात्र से मुक्ति
  18. मन परमात्माका चिन्तन करता रहे
  19. संन्यासीका जीवन
  20. अपने पिताजीकी बातें
  21. उद्धारका सरल उपाय-शरणागति
  22. अमृत-कण
  23. महापुरुषों की महिमा तथा वैराग्य का महत्त्व
  24. प्रारब्ध भोगनेसे ही नष्ट होता है
  25. जैसी भावना, तैसा फल
  26. भवरोग की औषधि भगवद्भजन

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